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Showing posts from June, 2020

4 गज़ माटी

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आज एक बेज़ुबान जानवर से   ज़ुबान वाले जानवर ने खेल किया भूख का लालच देकर उस जीव को , प्यार के नाम पर छल लिया आज दिया लालच फल का , डुबोया सूरज कल का बारूद के इस खेल में जान गई दो की ,  एक बाहर मरा तो दूजे ने दुनिया देखी भीतर की पेट की आग बुझी नही , लेकिन मुँह में धुआँ उठ गया एक विशाल गज आज बेवजह , 4 गज़ माटी में ढक गया सिर्फ़ शरीर ही मरा नही , विश्वास भी बारूद में उड़ गया । आज एक बेज़ुबान जानवर से ........    ~( तुषारकुमार )~ 

गाँव से शहर

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वोह जो चले थे गाँव से शहर की ओर दो वक्त की रोटी की तलाश में अब वापस लौट रहे है गाँव   होकर हताश अपनी ज़िंदगी की तलाश में कभी ढोया करते थे जो   परिवार की ज़िम्मेदारियाँ अपने मज़बूत काँधे के सहारे अब उसी परिवार को काँधे पर ढोह कर दबे जा रहे है मजबूरी के भार से नंगे पाँव में दर्द के छाले लिए आँखो में सुख के उजाले लिए दुख के अंधेरो से लड़े जा रहे है कदम दर कदम घर की दूरी नापें जा रहे है रोटी को तरसते भूखे पेट को लिए रोती आँखो से बरसते आँसुओं को पिए खून के घूँट निगले जा रहे है अब ज़िंदगी की तलाश में शहर से दुर हुए जा रहे है     ~( तुषारकुमार )~  

रंग भगवा

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कह गये सियाने, यह साधु-संतो की धरा है फिर क्यों वह बेसुध तुम्हारे पैरो में पड़ा है खड़ग वैराग्य का जो हाथ लिए चला था उसी पर लाठी लिए आज कोई चढ़ा था रंग भगवे का जिसके तन पर गढ़ा था आज लहूँ का लाल रंग, उसके अंग से बहा था आँसुओ में डूबी आँखो से, चींखती उसकी हर साँसो से मदद को वोह पुकारता रहा, दर्द से कराहता रहा लेकिन लाठियों का परचम दरिंदा फहारता रहा कोहराम था, मुँह से उसके शब्द निकला राम था क़त्ल हुआ यह सरेआम था, मोहल्ला पूरा तमाम था आज आवाज़ कोई उठी नही, आँख कोई भरी नही लाठियों के शोर में क़त्ल देख सब चुप है, जरा समझो इस बात को आज मानवता विलुप्त है।