रंग भगवा







कह गये सियाने, यह साधु-संतो की धरा है
फिर क्यों वह बेसुध तुम्हारे पैरो में पड़ा है

खड़ग वैराग्य का जो हाथ लिए चला था
उसी पर लाठी लिए आज कोई चढ़ा था

रंग भगवे का जिसके तन पर गढ़ा था
आज लहूँ का लाल रंग, उसके अंग से बहा था

आँसुओ में डूबी आँखो से, चींखती उसकी हर साँसो से
मदद को वोह पुकारता रहा, दर्द से कराहता रहा
लेकिन लाठियों का परचम दरिंदा फहारता रहा

कोहराम था, मुँह से उसके शब्द निकला राम था
क़त्ल हुआ यह सरेआम था, मोहल्ला पूरा तमाम था

आज आवाज़ कोई उठी नही, आँख कोई भरी नही
लाठियों के शोर में क़त्ल देख सब चुप है,
जरा समझो इस बात को आज मानवता विलुप्त है।

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