गाँव से शहर





वोह जो चले थे गाँव से शहर की ओर
दो वक्त की रोटी की तलाश में
अब वापस लौट रहे है गाँव 
होकर हताश अपनी ज़िंदगी की तलाश में

कभी ढोया करते थे जो 
परिवार की ज़िम्मेदारियाँ
अपने मज़बूत काँधे के सहारे
अब उसी परिवार को काँधे पर ढोह कर
दबे जा रहे है मजबूरी के भार से

नंगे पाँव में दर्द के छाले लिए
आँखो में सुख के उजाले लिए
दुख के अंधेरो से लड़े जा रहे है
कदम दर कदम घर की दूरी नापें जा रहे है

रोटी को तरसते भूखे पेट को लिए
रोती आँखो से बरसते आँसुओं को पिए
खून के घूँट निगले जा रहे है
अब ज़िंदगी की तलाश में शहर से दुर हुए जा रहे है

    ~(तुषारकुमार)~ 

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