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Showing posts from September, 2019

भगत सिंह

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जिसके   रगों   में   लहू   से   ज़्यादा   बहता   भारत   था   जिसका   हौंसला   एक   मज़बूत   इमारत   था   जिसके   जिस्म   में   आज़ादी   की   ख़ुश्बू   महकती   थी जिसके   साँसो   में   आज़ादी   की   आग   दहकती   थी जिसके   कंधो   पर   सूर्य   चमकता   था जिसके   क़दमों   से   चट्टान   चटकता   था   जिसकी   बोली   में   सिंह   गरजता   था जिसके   चेहरे   पर   तेज़   लहकता   था यह भगत   सिंह   कहलाता   था ,  यह   भगत   सिंह   कहलाता   है ,  यह   सिर्फ़   भगत   सिंह   कहलाएगा   ।

हाँ लब यह कुछ कह न सके ।

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काश कह दिया होता उसे कुछ , वरना यूँ आज अकेले न होते नजरें मिली भी थी , नजरें हमने चुराई भी थी बहाने से उसे देखा भी था इंतजार उसका किया भी था बस कुछ कह न सके , हाँ लब यह कुछ कह न सके । एक मुस्कान थी उसके चेहरे पर ,जिसे मै पढ़ न सका शायद कुछ इशारा किया था उसने , जिसे मैं समझ न सका जब पास वोह आई दिल तेज धड़का जरुर था जब वोह दूर गई दिल थम सा जरुर गया था बस कुछ कह न सके , हाँ लब यह कुछ कह न सके । उसका चेहरा कुछ ऐसा नर्म सा था, जिसे देखने के लिए मैं कुछ बेशर्म सा था आँखों पर उसके चश्मा चढ़ा था,देखने में जो थोडा सा बड़ा था चश्में के पीछे निगाहें छुपी थी, जिस में शायद कोई इशारा था पर मैं उन्हें समझ न सका, हाँ मैं कुछ समझ न सका बस कुछ कह न सके , हाँ लब यह कुछ कह न सके । उसका एहसास कुछ ऐसा था, जैसे नशा हो कोई आजादी की तलाश मैं कैदी फंसा हो कोई  इससे पहले भी ऐसा नशा हुआ है मुझे , लेकिन यह नशा सिर चढ़कर बोला, हाँ कुछ अलग था यह लेकिन बस हम कुछ कह न सके , हाँ लब यह कुछ कह न सके ।

ज़िंदगी की सबसे बड़ी पहेली ज़िंदगी है

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इक क्षण में अश्रु बहे इक क्षण में मुस्कान खिले ज़िंदगी की सबसे बड़ी पहेली ज़िंदगी है किस तरह यह उलझन खुले किस राह मैं दौड़ो किस राह मैं निहारू दो राह में अक्सर उलझ जाऊँ ज़िंदगी की सबसे बड़ी पहेली ज़िंदगी है किस तरह यह उलझन सुलझाऊँ हाँथों की बिखरी लकीरें माथे की अधूरी तक़दीरें चेहरे की पूरी उदासी अक्सर मुझसे यह सवाल पूछें ज़िंदगी की सबसे बड़ी पहेली ज़िंदगी है किस तरह यह उलझन खुले रातों में मेरी नींदे अधूरी साँसे कभी आधी कभी पूरी धड़कनो से मेरी यह हिसाब पूछे ज़िंदगी की सबसे बड़ी पहेली ज़िंदगी है किस तरह यह उलझन सुलझे