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4 गज़ माटी

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आज एक बेज़ुबान जानवर से   ज़ुबान वाले जानवर ने खेल किया भूख का लालच देकर उस जीव को , प्यार के नाम पर छल लिया आज दिया लालच फल का , डुबोया सूरज कल का बारूद के इस खेल में जान गई दो की ,  एक बाहर मरा तो दूजे ने दुनिया देखी भीतर की पेट की आग बुझी नही , लेकिन मुँह में धुआँ उठ गया एक विशाल गज आज बेवजह , 4 गज़ माटी में ढक गया सिर्फ़ शरीर ही मरा नही , विश्वास भी बारूद में उड़ गया । आज एक बेज़ुबान जानवर से ........    ~( तुषारकुमार )~ 

गाँव से शहर

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वोह जो चले थे गाँव से शहर की ओर दो वक्त की रोटी की तलाश में अब वापस लौट रहे है गाँव   होकर हताश अपनी ज़िंदगी की तलाश में कभी ढोया करते थे जो   परिवार की ज़िम्मेदारियाँ अपने मज़बूत काँधे के सहारे अब उसी परिवार को काँधे पर ढोह कर दबे जा रहे है मजबूरी के भार से नंगे पाँव में दर्द के छाले लिए आँखो में सुख के उजाले लिए दुख के अंधेरो से लड़े जा रहे है कदम दर कदम घर की दूरी नापें जा रहे है रोटी को तरसते भूखे पेट को लिए रोती आँखो से बरसते आँसुओं को पिए खून के घूँट निगले जा रहे है अब ज़िंदगी की तलाश में शहर से दुर हुए जा रहे है     ~( तुषारकुमार )~  

रंग भगवा

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कह गये सियाने, यह साधु-संतो की धरा है फिर क्यों वह बेसुध तुम्हारे पैरो में पड़ा है खड़ग वैराग्य का जो हाथ लिए चला था उसी पर लाठी लिए आज कोई चढ़ा था रंग भगवे का जिसके तन पर गढ़ा था आज लहूँ का लाल रंग, उसके अंग से बहा था आँसुओ में डूबी आँखो से, चींखती उसकी हर साँसो से मदद को वोह पुकारता रहा, दर्द से कराहता रहा लेकिन लाठियों का परचम दरिंदा फहारता रहा कोहराम था, मुँह से उसके शब्द निकला राम था क़त्ल हुआ यह सरेआम था, मोहल्ला पूरा तमाम था आज आवाज़ कोई उठी नही, आँख कोई भरी नही लाठियों के शोर में क़त्ल देख सब चुप है, जरा समझो इस बात को आज मानवता विलुप्त है।

लाचार प्रकृति

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रोया पहले जिस्म उसका फिर जाकर रोई रूह पहले उसको तूने गले उतारा अब क्यों छिपा रहा अपना मुँह पड़े थे छींटे जो खून के तुझ पर धोए थे तूने अपनी आँखे मूँद कर तड़पती आवाज़ें भी उसकी न सुनी तूने अपने ही हाथों से थे उसके प्राण छीने गवाह बनी है प्रकृति तेरे गुनाहों में माँगेगा ज़िंदगी की भीख अब किसकी पनाहों में जिन हवाओं में उसकी साँसो को रोका था तूने उन्हीं हवाओं में तेरी साँसे अब न पाए खोने कर ध्यान इस प्रकृति को फिर से नवजीवन देना है ध्यान की तरंगो से लाचार प्रकृति का उपचार कर देना है _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _                    ~(तुषारकुमार)~

प्रकृति दिखा रही अपनी खीझ

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लेकर नाम भूख का भोगी हर चीज दूरी बनाई शाक से न छोड़ा कोई जीव लोथड़े देख आँख से लार टपकाए जीभ सिर उड़ाया धड़ से पहले फिर नौच ली दीठ खून गिरा ज़मीन पर लेकिन ज़मीर बना रहा ढीठ बहती रही असुआँ की धारा लेकिन सहमा न तेरा चित देकर तड़का मसाले का मसल दिया हर मीठ खौलते तेल से लेकर तंदूर तक बच न पाया जीव मारा ज़ुबान का ऐसा चटकारा मर गया हर सजीव चक्र घूमा प्रकृति का ऐसा अब तड़प रहा तू निर्जीव लार टपकी थी जिससे अब कहाँ छिपी वह जीभ ढक कर मुखौटा डर का मुँह पर रो रहा तू अजीब झुंड से छँट कर भोगी अब माँग रहा जीवन भीख बन महामारी इस बारी प्रकृति दिखा रही अपनी खीझ

मैं लौट कर आऊँगा

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यह जो झूठ और प्रपंच है जिस पर सजा एक मंच है जो झुक गया वोह टिक गया जो न झुका, जलती अग्नि में सिक गया लेकिन मैं आवाज़ उठाते जाऊँगा अपने कदम बढ़ाते जाऊँगा इन कदमों के आहटों से तेरे सीने में जो हलचल होगी उसे और बढ़ाते जाऊँगा इस हलचल से तु थर थरायेगा अपने ही जाल में खुद उलझता जाएगा लेकिन याद रख मैं फिर लौट के आऊँगा क्योंकि यह जो झूठ और प्रपंच है जिस पर सजा एक मंच है उसे भेद में गिराऊँगा, मैं लौट कर आऊँगा ~(तुषारकुमार)~

होली

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इस होली चेहरे भले ही रंगीन हो लेकिन अपने दिलों को धवल श्वेत रखो रंग भले ही मजीठ गहरे पक्के रखो लेकिन अपने मन को निर्मल श्वेत रखो उनके गालों की लाली को भले ही गुलाबी रखो लेकिन उनको देखकर अपनी नजर को साफ़ श्वेत रखो आज अपने कुर्ते-आँचल को काले कीट रखो लेकिन अपनी भावनाओं को थोड़ा श्वेत रखो आज भले ही होली का पल शाम तक अवेत हो जाए लेकिन याद रहे यह सोगी समय ख़ुशियों से श्वेत हो जाए          ~(तुषारकुमार)~