लाचार प्रकृति
रोया पहले जिस्म उसका
फिर जाकर रोई रूह
पहले उसको तूने गले उतारा
अब क्यों छिपा रहा अपना मुँह
पड़े थे छींटे जो खून के तुझ पर
धोए थे तूने अपनी आँखे मूँद कर
तड़पती आवाज़ें भी उसकी न सुनी तूने
अपने ही हाथों से थे उसके प्राण छीने
गवाह बनी है प्रकृति तेरे गुनाहों में
माँगेगा ज़िंदगी की भीख अब किसकी पनाहों में
जिन हवाओं में उसकी साँसो को रोका था तूने
उन्हीं हवाओं में तेरी साँसे अब न पाए खोने
कर ध्यान इस प्रकृति को फिर से नवजीवन देना है
ध्यान की तरंगो से लाचार प्रकृति का उपचार कर देना है
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~(तुषारकुमार)~
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