प्रकृति दिखा रही अपनी खीझ






लेकर नाम भूख का भोगी हर चीज
दूरी बनाई शाक से न छोड़ा कोई जीव
लोथड़े देख आँख से लार टपकाए जीभ
सिर उड़ाया धड़ से पहले फिर नौच ली दीठ
खून गिरा ज़मीन पर लेकिन ज़मीर बना रहा ढीठ
बहती रही असुआँ की धारा लेकिन सहमा न तेरा चित
देकर तड़का मसाले का मसल दिया हर मीठ
खौलते तेल से लेकर तंदूर तक बच न पाया जीव
मारा ज़ुबान का ऐसा चटकारा मर गया हर सजीव

चक्र घूमा प्रकृति का ऐसा अब तड़प रहा तू निर्जीव
लार टपकी थी जिससे अब कहाँ छिपी वह जीभ
ढक कर मुखौटा डर का मुँह पर रो रहा तू अजीब
झुंड से छँट कर भोगी अब माँग रहा जीवन भीख
बन महामारी इस बारी प्रकृति दिखा रही अपनी खीझ

Comments

Popular posts from this blog

हाँ लब यह कुछ कह न सके ।

रंग भगवा

ज़िंदगी की सबसे बड़ी पहेली ज़िंदगी है