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Showing posts from March, 2020

लाचार प्रकृति

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रोया पहले जिस्म उसका फिर जाकर रोई रूह पहले उसको तूने गले उतारा अब क्यों छिपा रहा अपना मुँह पड़े थे छींटे जो खून के तुझ पर धोए थे तूने अपनी आँखे मूँद कर तड़पती आवाज़ें भी उसकी न सुनी तूने अपने ही हाथों से थे उसके प्राण छीने गवाह बनी है प्रकृति तेरे गुनाहों में माँगेगा ज़िंदगी की भीख अब किसकी पनाहों में जिन हवाओं में उसकी साँसो को रोका था तूने उन्हीं हवाओं में तेरी साँसे अब न पाए खोने कर ध्यान इस प्रकृति को फिर से नवजीवन देना है ध्यान की तरंगो से लाचार प्रकृति का उपचार कर देना है _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _                    ~(तुषारकुमार)~

प्रकृति दिखा रही अपनी खीझ

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लेकर नाम भूख का भोगी हर चीज दूरी बनाई शाक से न छोड़ा कोई जीव लोथड़े देख आँख से लार टपकाए जीभ सिर उड़ाया धड़ से पहले फिर नौच ली दीठ खून गिरा ज़मीन पर लेकिन ज़मीर बना रहा ढीठ बहती रही असुआँ की धारा लेकिन सहमा न तेरा चित देकर तड़का मसाले का मसल दिया हर मीठ खौलते तेल से लेकर तंदूर तक बच न पाया जीव मारा ज़ुबान का ऐसा चटकारा मर गया हर सजीव चक्र घूमा प्रकृति का ऐसा अब तड़प रहा तू निर्जीव लार टपकी थी जिससे अब कहाँ छिपी वह जीभ ढक कर मुखौटा डर का मुँह पर रो रहा तू अजीब झुंड से छँट कर भोगी अब माँग रहा जीवन भीख बन महामारी इस बारी प्रकृति दिखा रही अपनी खीझ

मैं लौट कर आऊँगा

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यह जो झूठ और प्रपंच है जिस पर सजा एक मंच है जो झुक गया वोह टिक गया जो न झुका, जलती अग्नि में सिक गया लेकिन मैं आवाज़ उठाते जाऊँगा अपने कदम बढ़ाते जाऊँगा इन कदमों के आहटों से तेरे सीने में जो हलचल होगी उसे और बढ़ाते जाऊँगा इस हलचल से तु थर थरायेगा अपने ही जाल में खुद उलझता जाएगा लेकिन याद रख मैं फिर लौट के आऊँगा क्योंकि यह जो झूठ और प्रपंच है जिस पर सजा एक मंच है उसे भेद में गिराऊँगा, मैं लौट कर आऊँगा ~(तुषारकुमार)~

होली

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इस होली चेहरे भले ही रंगीन हो लेकिन अपने दिलों को धवल श्वेत रखो रंग भले ही मजीठ गहरे पक्के रखो लेकिन अपने मन को निर्मल श्वेत रखो उनके गालों की लाली को भले ही गुलाबी रखो लेकिन उनको देखकर अपनी नजर को साफ़ श्वेत रखो आज अपने कुर्ते-आँचल को काले कीट रखो लेकिन अपनी भावनाओं को थोड़ा श्वेत रखो आज भले ही होली का पल शाम तक अवेत हो जाए लेकिन याद रहे यह सोगी समय ख़ुशियों से श्वेत हो जाए          ~(तुषारकुमार)~

कल उसे फिर रुलाओगे

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आज महिला दिवस मनाओगे कल उसे फिर रुलाओगे आज उसके बल का बखान करोगे कल अगले ही पल उसे अबला कहोगे आज उसे फूलों का हार पहनाएंगे कल उससे हारने में भी शरमायेंगे आज कहोगे तु शान है, अभिमान है कल उसकी शान को शमशान तुम बनाओगे आज उसके लिए नए वस्त्र लाओगे कल उसे निर्वस्त्र करने में अपना हाथ आगे बढ़ाओगे आज उसकी उड़ान की गति में ईंधन भरते जाओगे कल अपनी कुमति की गति से उसमें रोक लगाओगे आज स्त्री सम्मान पर दो पेज लम्बा भाषण सुनाओगे कल उसी के जन्म पर रोनी सूरत में मातम मनाओगे ऐसी दोहरे चरितार्थ में और कितने जन्म बिताओगे?     ~(तुषारकुमार)~

कुछ अलग सोच, कुछ नया सोच !

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  यह सोच कर मत रुक जाओं कि तुम्हारी सोच पर वोह क्या सोचेंगे? वोह क्या सोचते है? यह सोच-सोच कर तुमने अपनी सोच को इस सोच में इतना गिरा दिया है कि अब आप कुछ नया सोच ही नही पा रहे हो । नकरात्मक सोच को सकारात्मक सोच में बदल डालो। क्योंकि... यह एक सोच ही है जो किसी को यह सोचने में मजबूर कर देती है कि अगर हम कुछ अलग करने की सोचे तो वोह हमारे बारे में क्या सोचेंगे? याद रखो जितना उनके बारे में सोचोगे उतना यह सोच तुम्हें सोचने पर मजबूर कर देगी। अपनी इस सोच पर किसी दूसरे की सोच की सोच मत आने दो । कुछ अलग सोच, कुछ नया सोच !    ~(तुषारकुमार)~

आ तू मैं एक साँझ हो जाए

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मैं घंघोर काली रात सा तू सुनहरा सा प्रभात है मैं तारों का संग लिए तेरा तेज भी प्रख्यात है मेरे तो चाँद में भी दाग है तेरा सूरज उबलती आग है मैं जुगनुओं सा टिम टिमाता हूँ तेरी किरणे रौशन जग करे मैं आज का अँधेरा हूँ तू एक नया सवेरा है मैं सुनसान सा एक पल हूँ तेरे चारों ओर हलचल है तू एक सफ़ेद सा ऊजाला है लेकिन मैरा रंग भी निराला है मैं बैठा हूँ रातों की ठंडक लिए तू तो दिन की बैचेनी है आ तू मैं एक साथ हो जाए हाँ तू मैं एक साँझ हो जाए    ...(तुषारकुमार)